उत्तराखंड में नए मुख्यमंत्री के बाद पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की संवैधानिक अड़चनें बढ़ी

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तीरथ सिंह रावत के इस्तीफा और पुष्कर सिंह धामी के नए मुख्यमंत्री पद पर चयन के बाद, उत्तराखंड का हालिया संवैधानिक संकट खत्म हो गया है. संविधान के अनुच्छेद 164 (1) के तहत तीरथ सिंह रावत विधायक नहीं होने के बावजूद 10 मार्च 2021 को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बन गए थे. संविधान के अनुच्छेद 164(4) के तहत, उन्हें 6 महीने के भीतर यानी 10 सितंबर 2021 के पहले विधानसभा का सदस्य (विधायक) बनना जरूरी था.

उत्तराखंड में चौथी विधानसभा का गठन 21 मार्च 2017 को हुआ और जिसका कार्यकाल मार्च 2022 को समाप्त हो जाएगा. जनप्रतिनिधित्‍व अधिनियम, 1951 की धारा 151ए के अनुसार संसद, विधानसभा या विधान परिषद में खाली सीटों में निर्वाचन आयोग को 6 महीने के अंदर उपचुनाव कराना चाहिए. लेकिन, उस क़ानून के अनुसार उपचुनाव तभी होगा, यदि विधानसभा या संसद का शेष कार्यकाल एक साल या उससे अधिक हो.

इस लिहाज से उत्तराखंड में विधानसभा सीट के लिए उपचुनाव होना संभव नहीं था और विधायक बने बगैर तीरथ सिंह 6 महीने से ज्यादा मुख्यमंत्री नहीं रह सकते थे, इसलिए उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा. इसके बाद, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की मुश्किलें बढ़ जायेंगी, क्योंकि वे भी विधानसभा का सदस्य नहीं हैं.

पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री और दो मंत्रियों पर खतरे की तलवारकोरोना की दूसरी लहर के बीच, चुनाव आयोग ने पांच राज्यों की विधानसभा के लिए कुछ महीने पहले ही चुनाव कराए थे. नंदीग्राम में शुभेन्द्रू अधिकारी से 2000 से कम वोटों से चुनाव हारने के बावजूद 5 मई 2021 को ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बन गयीं. उन्होंने चुनावों में गड़बड़ी को लेकर कोलकाता हाईकोर्ट में अधिकारी की जीत को चुनौती देते हुए, खुद को विजयी करने की मांग की है. इसका फैसला जब भी आये, हारा हुआ दूसरा पक्ष उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देगा. इसलिए, उस सीट से 5 नवम्बर के पहले ममता बनर्जी के जीतने की ज्यादा गुंजाईश नहीं है.

पश्चिम बंगाल में 7 सीटों के लिए उपचुनाव पर दो और मंत्रियों का भविष्य दांव पर लगा हुआ है. ममता बनर्जी के लिए कोलकाता की भवानीपुर सीट से त्यागपत्र देने वाले चट्टोपाध्याय, विधायक नहीं होने के बावजूद राज्य सरकार में मंत्री बन गए. दूसरा वित्त मंत्री अमित मित्रा भी विधायक नहीं हैं. इसलिए, मुख्यमंत्री और मंत्री बने रहने के लिए इन तीनों लोगों को 5 नवम्बर के पहले उपचुनाव जीतकर विधानसभा में आना ही होगा.

यह जरूरी नहीं है कि उपचुनाव होने पर ममता बनर्जी  चुनाव जीत ही जाएं. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री त्रिभुवन नारायण सिंह 1970 में उप चुनाव हार गए और झारखंड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन 2009 में उपचुनाव हार गए थे. दोनों लोगों को हारने के बाद मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा था.विधान परिषद में निर्वाचन और मनोनयन का रास्ता
देश के 6 राज्यों आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना, महाराष्ट्र, बिहार और उत्तर प्रदेश में विधानसभा के अलावा विधान परिषद का दूसरा सदन भी है. उत्तर प्रदेश में 2017 के चुनाव के बाद योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया गया, तब वे विधायक नहीं थे. मुख्यमंत्री के बनने के बाद उन्होंने विधान परिषद के माध्यम से सदन की सदस्यता ली. संविधान के अनुच्छेद 171 में विधान परिषद् में मनोनयन के रूट से महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे पिछले साल मुख्यमंत्री पद की गद्दी बचाने में सफल रहे.

पश्चिम बंगाल में फिलहाल विधान परिषद् नहीं है. संविधान के अनुच्छेद 169 के अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए विधान परिषद की स्थापना के लिए पश्चिम बंगाल में विधेयक पारित होने की प्रक्रिया शुरू हो गयी है. लेकिन इसे कानूनी तौर पर पूरी मान्यता मिलने के लिए संसद के दोनों सदनों का अनुमोदन चाहिए होगा। इसलिए 5 नवम्बर के पहले विधान परिषद् के पिछले दरवाजे से ममता बनर्जी का प्रवेश मुश्किल दिखता है.

बगैर विधायक और सांसद बने मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बनने का लंबा इतिहास
संविधान के अनुच्छेद 164 और 75 के तहत विधायक और सांसद रहे बगैर मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बनने की गुंजाइश है. इस बारे में प्रतिबंध लगाने के लिए संविधान सभा में लंबी बहस भी हुई. संविधान सभा ने उस संशोधन को स्वीकार नहीं किया, जिसकी वजह से गैर सदस्यों को भी मंत्री बनने की इजाजत मिल गयी. सबसे पहले, सन 1952 में सी राजगोपालाचारी को विधायक बने बगैर मद्रास का मुख्यमंत्री बनाया गया.

तीसरे मोर्चे की तरफ से देवगौड़ा को सन 1996 में प्रधानमंत्री बनाया गया, उस समय वे संसद के किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे. प्रधानमंत्री बनने के बाद, सितंबर 96 में राज्यसभा के माध्यम से उन्होंने सदन में प्रवेश किया. राज्यसभा सदस्य से प्रधानमंत्री बनने वाले वे पहले व्यक्ति थे, जिसके बाद मनमोहन सिंह इसी रूट से प्रधानमंत्री बने. इस मामले में, जयललिता का मामला बड़ा दिलचस्प था. भ्रष्टाचार के मामलों की वजह से उन्हें विधायक बनने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया था. उसके बावजूद, मुख्यमंत्री पद पर आसीन होकर, क़ानून में उन्होंने लंबी सुरंग बना दी.

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का 2001 का फैसला
पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के बेटे तेज प्रकाश सिंह विधायक बने बगैर मंत्री बन गए थे. एस आर चौधरी बनाम पंजाब सरकार के उस मामले में 2001 में सुप्रीम कोर्ट में 5 जजों की संविधान पीठ ने फैसला देते हुए कहा था कि बगैर विधायिका का सदस्य बने कोई भी व्यक्ति 6 महीने के बाद दुबारा मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री नहीं बन सकता है.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि ऐसा करने की इजाजत दी गयी, तो यह संविधान के साथ धोखाधड़ी होगी. उसके पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री त्रिभुवन सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की संविधान पीठ ने सन 1971 में महत्वपुर्ण फैसला दिया था. उसके अनुसार बगैर विधायक और सांसद बनने वाले मंत्री या मुख्यमंत्री को सदन की कार्यवाही में भाग लेने का अधिकार होगा, लेकिन वो लोग सदन में वोट नहीं डाल सकते.

चुनाव आयोग के अधिकार और सांविधानिक उत्तरदायित्व
संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत चुनाव कराने और तारीखों के बारे में फैसला लेने के लिए चुनाव आयोग को पूरे अधिकार हैं. लेकिन खाली हुई सीट पर 6 महीने के भीतर उपचुनाव कराने के लिए आयोग का कानूनी उत्तरदायित्व भी है. इसके पीछे यह भावना है कि हर विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र के चुने हुए जनप्रतिनिधि को सदन में होना ही चाहिए.

यदि जल्द उपचुनाव नहीं हुए, तो इससे जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन होगा. पांच राज्यों के चुनाव कराने के बाद चुनाव आयोग ने लोकसभा और विधानसभा की अनेक  सीटों के लिए उपचुनावों को स्थगित करने की घोषणा कर दी थी. उसके बाद से पश्चिम बंगाल में कयासों के बादल मडराने लगे. उत्तराखंड में उपचुनाव नहीं कराने के लिए चुनाव आयोग के पास वैधानिक तर्क थे. लेकिन, पश्चिम बंगाल की 7 सीटों में यदि समय पर उपचुनाव नहीं हुआ, तो यह मामला सुप्रीम कोर्ट जाएगा.

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु में नगर पालिका चुनाव कराने के लिए फैसला दिया था. पश्चिम बंगाल में चुनाव नहीं कराने से संवैधानिक संकट आ सकता है और वहां पर आरपी एक्ट की धारा 151 के तहत चुनाव कराने की बाध्यता भी है. इसलिए चुनाव नहीं कराने की स्थिति में चुनाव आयोग को सुप्रीम कोर्ट के सामने ठोस और तार्किक वजह देनी होगी.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)

ब्लॉगर के बारे में

विराग गुप्ताएडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट

लेखक सुप्रीम कोर्ट के वकील और संविधान तथा साइबर कानून के जानकार हैं. राष्ट्रीय समाचार पत्र और पत्रिकाओं में नियमित लेखन के साथ टीवी डिबेट्स का भी नियमित हिस्सा रहते हैं. कानून, साहित्य, इतिहास और बच्चों से संबंधित इनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं. पिछले 4 वर्ष से लगातार विधि लेखन हेतु सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस द्वारा संविधान दिवस पर सम्मानित हो चुके हैं. ट्विटर- @viraggupta.

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