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लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी   : उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत का वैश्विक ध्वजवाहक 

विशेष रिपोर्ट – आशीष तिवारी कलम में पहाड़  संगीत में पहाड़  गीत में पहाड़ और एक दमदार दहाड़ .जब जब मैं उत्तराखंड से मिलता हूँ तो सामने एक ही शख़्स का  वजूद होता है  , पहाड़ी टोपी , उम्र को धकेलता जोश और झरनों सा बहता देवभूमि का वृतांत .दुनिया जिन्हे लोक संस्कृति और देवभूमि की विरासत मानकर कहती है गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी . यूँ तो नरेंद्र सिंह नेगी जी कुछ साल पहले गंभीर रूप से  बिमार हुए थे जिसके बाद से ही ज्यादातर समय देहरादून में रहते हैं और अक्सर अपने प्रशंसकों के बीच नज़र आते हैं। लेकिन आप  उन्हें यूट्यूब और फेसबुक के ज़रिये नए नए प्रोजेक्ट पर काम करते देख सकते हैं। जब नेगी दा से मौजूदा राजनीती और उत्तराखंड के भविष्य पर बात करते हैं तो स्वभाव से खरे लोकगायक बड़ी साफगोई से कहते हैं कि जिस उद्देश्य के लिए पहाड़ के शहीदों ने कुर्बानियाँ दी , जिस लक्ष्य के लिए जिस पहचान के लिए उत्तराखंड  आंदोलन किया गया वो लक्ष्य और मकसद नेताओं की लालची सियासत ने भुला दिया है। पहाड़ के पलायन और भ्र्ष्टाचार से आहत नरेंद्र सिंह नेगी किसी भी सियासी नेता या पार्टी को नहीं बख़्शते है उनका कहना है कि अगर उत्तराखंड का ये ही हाल देखना था तो बेहतर होता अलग पहाड़ी राज्य के लिए मांग ही न की जाती।
12 August 1949 को उत्तराखंड के पौड़ी जिले में जन्मे नरेंद्र सिंह नेगी बचपन से ही इंडियन आर्मी जॉइन  करना चाहते थे , लेकिन गरीबी और विषम हालातों में यह हो न सका।  एक इंटरव्यू में अपनी स्कूली शिक्षा के बारे बताते हुए नेगी दा कहते हैं की उनकी पहली से चौथी तक की पढ़ाई एक गर्ल्स स्कूल में हुए थी जिसके बाद उन्हें दूसरे स्कूल भेजा गया था।  खैर जैसे जैसे समय बीतता गया और उन्होंने अपनी हायर एजुकेशन भी रामपुर से कर ली वहीं इन्होने अपने चचेरे भाई अजित नेगी जी से तबला वादन सीखा ।  लेकिन अभी तक  गीत और संगीत की उनकी अद्भुत प्रतिभा के बारे दुनिया नहीं जान सकी थी।

 1974 का एक वाक्या साझा करते हुए नेगी जी बताते हैं कि जब अपने पिता के आँखों के ओप्रशन के लिए हर्बर्टपुर में लेहमैन अस्पताल गए हुए थे ,उस दौरान  बारिश का मौसम थी। एकाएक उनके मन उनके माँ के संघर्षो  से जूझने की हकीकत दिल ओ दिमाग पर मचलने लगी और इसी उधेड़बुन में एक गीत ने जन्म लिया और अस्तित्व में आया नेगी दा का पहला गीत – ‘सैर बसग्याल बोंण मा,  रुड़ी कुटण मा ,ह्यूंद पिसी बितैना, म्यारा सदनी इनी दिन रैना।’

1976 के साल उन्हें आकाशवाणी में casual artist के तौर पर गाने का अवसर मिला , धीरे धीरे उनकी आवाज को काफी पसंद किया जाने लगा जिसके फलस्वरूप आकाशवाणी, लखनऊ ने नेगी दा  को 10  अन्य कलाकारों के साथ अत्यधिक लोकप्रिय लोक गीतकार (Most Popular Folk Singers) के रूप में सम्मानित किया है  यह पुरस्कार फरमाइश-ए-गीत के लिए आकाशवाणी को लोगों द्वारा भेजे गए प्राप्त पत्रों की संख्याओं पर आधारित हुआ करता था। 

नरेंद्र सिंह नेगी के संगीत जगत के सफर की शुरुवात ‘गढ़वाली गीतमाला’ से शुरु हो कर आज तक निरंतर बहती ही जा रही है। गढ़वाली गीतमाला को 10 अलग अलग भागों में में रिलीज़ किया गया था इसके बाद नेगी दा ने 10 गीतों की एक एल्बम रिलीज़ की जिसे बुरांश के नाम से जाना जाता है इसी को नेगी दा की पहली म्यूजिक एल्बम भी माना जाता है।  इस एल्बम के सभी गीतों को लोगो ने काफी पसंद किया गया।  इसी एल्बम में नरेंद्र सिंह नेगी जी का पहला गीत  सैरा बस्ग्याल को भी शामिल किया था इसके आलावा तेरा रूप की झोळ, बरखा झुकी ऐयेगी  जैसे शानदार गीत भी शामिल थे। 

 उनके पॉपुलर गीतों ओर एलबम्स की बात करें तो छुयाल, दगिड्या, घस्यारी, हल्दी हाथ, होसिया उमर, धारी देवी,  कैथे खोज्यानी होली, माया को मुण्डारो, नौछमी नारेणा, नयु नयु ब्यो छो, रुमुक, सल्यान सयाली,  समदोला का द्वी दिन आज भी उनके दुनियाभर में फैले  लोकप्रिय है। नेगी दा उत्तराखंड साहित्य ओर संगीत जगत एक कभी न भुलाये जा सकने वाला पहलू हैं उनके जीवन के कहीं सारे अनसुने किस्से और कहानियां आपको हसाएंगे, रुलायेंगी और प्रेरित करेंगे । 

नरेंद्र सिंह नेगी का पारिवारिक परिचय – 

नरेंद्र सिंह नेगी ने अपनी प्राथमिक शिक्षा अपने गांव पौड़ी के विद्यालय से सम्पन की और अपनी स्नातक  के लिए वह अपने चचेरे भाई अजीत सिंह नेगी के साथ रामपुर चले गए। जहा उन्होंने अपने चचेरे भाई जो कि संगीत के प्रोफेसर थे उन्हीं से आपने तबला बादन भी सीखा, और यही से उनकी रूचि संगीत जगत एवं गायन की ओर बढ़ती गयी जो कि आजतक कायम है। नेगी दा की जीवनसंगिनी का नाम उषा नेगी है जो बीते कई सालों से अपने प्रतिभा संपन्न सरस्वती पुत्र पति के कदम से कदम मिलाते हुए साथ दे रही हैं। नेगी दम्पति की दो संताने हैं एक पुत्र कविलास नेगी व एक पुत्री रितु नेगी। आज पूरा परिवार न सिर्फ संगीत को समर्पित है बल्कि देश दुनिया में पहाड़ की सांझी विरासत को संजोने के लिए सम्मान भी प्राप्त कर रहा है। 

नरेंद्र सिंह नेगी जी संगीत व्यवसाय – 

अपनी पढ़ाई पूर्ण करने के पश्च्यात नेगी जी को जिला सूचना अधिकारी के पद पर तैनाती मिली परन्तु अपनी संगीत की ललक को उन्होंने यहाँ भी कायम रखा फलस्वरूप सरकारी नौकरी के साथ साथ उन्होंने आकाशवाणी लखनऊ के प्रादेशिक केंद्र से गढ़वाली गाने भी गए ।
वह सूचना और जनसंपर्क विभाग में जिला सूचना अधिकारी के पद पर कार्य भी कर चुके हैं।

संगीत में उन्हें बचपन से ही रुचि थी पर उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि वह एक संगीतकार बनेंगे। वह तो आर्मी ज्वाइन करना चाहते थे पर उनकी किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। उन्होंने 1000 से अधिक गीत गाए हैं। उन्होंने अपना पहला गीत पहाड़ो की महिलाओं के कष्टों से भरे जीवन पर आधारित गाया। इस गीत को लोगो ने बहुत पसन्द किया सब को लगा जैसे कि यह गीत उन्ही के लिए गाया गया होगा, इस गीत के बोल “सैरा बसग्याल बोण मा, रुड़ी कुटण मा, ह्युंद पिसी बितैना, म्यारा सदनी इनी दिन रैना ” (अर्थात बरसात जंगलो में, गर्मियां कूटने में, सर्दियाँ पीसने में बितायी, मेरे हमेशा ऐसे ही दिन रहे ) लोगो के जीवन को छु गए थे। इस गीत की सक्सेस के बाद उन्होंने उत्तराखंड के गायन की हर एक शैली जैसे कि जागर, मांगल, बसंती झुमेला, औज्यो की वार्ता, चौंफला, थड्या आदि में भी गाया हैं। आज भी देहरादून के अपने आवास में आपको नेगी जी  समसामयिक विषयों और उत्तराखंड की संस्कृति से जुड़े गीत लिखते और संगीत कम्पोज़ करते बड़ी सहजता और विनम्रता से मिल जायेंगे।

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