देवभूमि में NOTA : उत्तराखंड चुनाव में क्या नोटा का टूटेगा रिकॉर्ड ?

विशेष रिपोर्ट – आशीष तिवारी देश में सामान्य नागरिकों का सबसे बड़ा कर्तव्य है लोकतंत्र के विशाल वट वृक्ष को मतदान की एक एक बूँद से सिंचित करना  , जिससे हिन्दुस्तान की स्वस्थ राजनीती का अस्तित्व समृद्ध बना रहे। लेकिन जबसे मतदान के लिए नोटा का वजूद सामने आया है लोगों का लीडरों और सियासी परियों से कोफ़्त का खुलासा भी खूब होने लगा ऐसे में छोटे से पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में पहाड़ के मतदाता नोटा (इनमें से कोई नहीं) का विकल्प चुनने में काफी आगे रहे हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव में उत्तराखंड की 70 विधानसभा में रहने वाले 50 हजार से अधिक लोगों ने किसी प्रत्याशी को वोट देने के बजाय नोटा का विकल्प चुना।

उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव में पहली बार नोटा का विकल्प 2017 में प्रयोग में लाया गया। वोटिंग प्रक्रिया समाप्त होने के बाद जब चुनाव परिणाम घोषित किया गया तो आंकड़ा चौंकाने वाला था। 50408 लोगों ने नोटा विकल्प का इस्तेमाल किया था।

इसमें भी सबसे अधिक नोटा विकल्प पहाड़ की बागेश्वर, लोहाघाट, कपकोट, सोमेश्वर, पिथौरागढ़ और चंपावत विधानसभा में मतदाताओं ने चुना था। वहीं गढ़वाल मंडल में थराली और रुद्रप्रयाग सीट पर भी हजारों लोगों ने नोटा विकल्प का प्रयोग कर अपनी मंशा जताई थी। पहाड़ की इन प्रत्येक विधासभा में 1000 से पौने 2 हजार वोट नोटा को पड़े थे।

ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि 2022 चुनाव में भी नोटा विकल्प बड़े-बड़े दावे करने वाले राजनीतिक दलों और उनके प्रत्याशियों के लिए मुसीबत बन सकता है। 2012 तक जितने भी चुनाव हुए उनमें मतदाता को केवल प्रत्याशी चुनने का अधिकार ही था। ऐसे में जो लोग वायदों वाली राजनीति से दूर रहते हैं और विकास देखना चाहते हैं उनमें से कई अक्सर चुनावों से किनारा कर लेते थे।

वहीं, अन्य लोगों के सामने भी प्रत्याशी या दलों के चुनाव चिह्न वाला बटन ही होता था। 2013 में निर्वाचन आयोग ने देशभर के मतदाताओं को नोटा का भी विकल्प दिया। इस विकल्प का उपयोग कर वे लोग भी अपनी मंशा प्रकट कर सकते थे जिन्हें उनके क्षेत्र में चुनाव लड़ रहा कोई भी प्रत्याशी पसंद न हो।

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