केरल में लागू था ये नियम
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आपत्तिजनक नियम
चेन्नई में पहला अंग्रेजी अखबार लांच करने वाली “मद्रास कुरियर” की रिपोर्ट के मुताबिक, केरल में निचली जाति की महिलाओं के लिए कड़े नियम बनाए गए थे। इस नियम के मुताबिक महिला अगर अपनी छाती को ढंकती थी तो उनके स्तन के आकार पर टैक्स भरना होता था। ये आपत्तिजनक नियम और टैक्स त्रावणकोर के राजा के दिमाग की उपज थी। जिसे उसने अपने सलाहकारों के कहने पर सख्ती से लागू किया था।
एक रिपोर्ट के मुताबिक, टैक्स नहीं देने और आदेश को नहीं मानने वाली महिलाओं को सजा भी दी जाती थी। इतना ही नहीं नांगेली नाम की एक निचली जाति की महिला ने इस अमानवीय टैक्स का जब विरोध किया था, तो सजा के तौर पर उसके स्तन काट दिए गए थे, जिससे उसकी मौत हो गई थी। इस मौत के बाद निचली जाति के लोग एक हो गए थे और ईसाई महिलाओं समेत अन्य महिला इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने लगी थी।
150 साल पुरानी है कहानी
इस दौरान उन्होंने अंग्रेजों और मिशनरियों में जाकर इस आपत्तिजनक कानून के बारे में बताया था। जिसके बाद अंग्रेजों के दबाव में आकर त्रावणकोर को इसे बंद करना पड़ा था। जानकारी के मुताबिक, केरल के इतिहास के पन्नों में छिपी ये कहानी करीब 150 साल पुरानी है। लेखक दीवान जर्मनी दास ने अपनी किताब महारानी में जिक्र किया है कि त्रावणकोर का शासन केरल के एक भूभाग पर फैला हुआ था।
पहनावे के बने थे नियम
उन्होंने लिखा कि उस वक्त पहनावे के भी नियम बने हुए थे, किसी के पहनावे को देखकर उसकी जाति के बारे में पता चल जाता था। इस कानून को लेकर जब टैक्स का विरोध हुआ था, तो टैक्स लेना बंद कर दिया गया था। लेकिन स्तन ढंकने पर रोक जारी थी, ये कुप्रथा करीब 125 साल तक चली थी। कहा जाता है कि यहां तक त्रावणकोर की रानी भी इस व्यवस्था को सही मानती थी।
पुरुषों को भी नहीं थी सिर ढकने की परमिशन
यह फूहड़ रिवाज सिर्फ महिलाओं पर नहीं, बल्कि पुरुषों पर भी लागू था। उन्हें सिर ढकने की परमिशन नहीं थी। अगर वे कमर के ऊपर कपड़ा पहनना चाहें और सिर उठाकर चलना चाहें तो इसके लिए उसे अलग से टैक्स देना पड़ता था। यह व्यवस्था ऊंची जाति को छोड़कर सभी पर लागू थी, लेकिन वर्ण व्यवस्था में सबसे नीचे होने के कारण निचली जाति की दलित महिलाओं को सबसे ज्यादा प्रताड़ना झेलनी पड़ी।
इस तरह से खत्म हुआ कानून
अंग्रेज गवर्नर चार्ल्स ट्रेवेलियन ने 1859 में इसे खत्म करने का आदेश दिया था। उस वक्त नाडार महिलाओं ने वस्त्रों की ऐसी शैली विकसित थी, जो उच्च वर्ग हिंदू महिलाओं की शैली जैसी ही थी। अंत में 1865 के आदेश में सभी जाति की महिलाओं को ऊपरी वस्त्र पहनने की आजादी मिली थी। बता दें कि दीवान जर्मनी दास ने भी अपनी किताब “महारानी” में भी इस कुप्रथा का जिक्र किया है।