सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सोमवार को अहम व्यवस्था देते हुए कहा कि यदि पति-पत्नी का रिश्ता टूट चुका हो और सुलह की गुंजाइश ही न बची हो, तो वह संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपने विशेषाधिकारों का इस्तेमाल कर तलाक को मंजूरी दे सकता है। जस्टिस संजय किशन कौल की अगुवाई वाली पांच न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत आपसी सहमति से तलाक के लिए छह महीने की अनिवार्य प्रतीक्षा अवधि को समाप्त किया जा सकता है।
पीठ ने कहा, ‘हमने अपने निष्कर्षों के अनुरूप, व्यवस्था दी है कि इस अदालत के लिए, किसी शादीशुदा रिश्ते में आई दरार न भर पाने के आधार पर उसे खत्म करना संभव है। यह सरकारी नीति के विशिष्ट या बुनियादी सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं होगा।’
पीठ में जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस एएस ओका, जस्टिस विक्रमनाथ और जस्टिस जेके माहेश्वरी भी शामिल हैं। शीर्ष अदालत ने पिछले साल 29 सितंबर को मामले में अपना फैसला सुरक्षित रखा था। उसने दलीलों पर सुनवाई करते हुए कहा कि सामाजिक परिवर्तनों में थोड़ा समय लगता है और कई बार कानून बनाना आसान होता है, लेकिन समाज को इसके साथ बदलाव के लिए मनाना मुश्किल होता है। पीठ इस बात पर भी विचार कर रही थी कि क्या अनुच्छेद 142 के तहत इसकी व्यापक शक्तियां ऐसे परिदृश्य में किसी भी तरह से अवरुद्ध होती हैं, जहां किसी अदालत की राय में शादीशुदा संबंध इस तरह से टूट गया है कि जुड़ने की संभावना नहीं है, लेकिन कोई एक पक्ष तलाक में अवरोध पैदा कर रहा है।
शीर्ष अदालत ने इस बात पर भी विचार किया कि क्या वह घरेलू हिंसा कानून, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 या भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए और अन्य प्रावधानों के तहत आपराधिक मुकदमों का भी निपटारा कर सकती है। न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि कोई भी वादकार संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत रिट याचिका दायर करके, न सुधर पाने वाले रिश्तों के आधार पर विवाह समाप्त करने का अनुरोध नहीं कर सकता।