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समझा जा रहा है कि बीजेपी मुख्यमंत्री का नाम घोषित किए बगैर उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में उतरेगी (फाइल फोटो)
बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने हाल में ही उत्तराखंड की सत्ता में नेतृत्व परिवर्तन कर अपनी चुनावी रणनीति को अमलीजामा पहनाने की कोशिश की थी. लेकिन नया नेतृत्व भी उसकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रहा है. इसके अलावा कोरोना वायरस (Corona Virus) से बने हालात ने भी पार्टी की चिंता बढ़ा दी है
बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने पिछले दिनों त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाकर तीरथ सिंह रावत को उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बना दिया था (फाइल फोटो)
दरअसल बीजेपी ने असम में भी यही फॉर्मूला अपनाया था. वहां तत्कालीन मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल के रहते हुए भी उनको बतौर मुख्यमंत्री पेश नहीं किया गया था, बल्कि चुनाव मैदान में उतरे हेमंत बिस्वा सरमा को परोक्ष रूप से आगे बढ़ाया गया था, और बाद में उनको ही मुख्यमंत्री बनाया गया.
बीजेपी में मुख्यमंत्री पद के लगभग आधा दर्जन दावेदार किसी एक चेहरे पर दांव न लगाने के पीछे एक रणनीति यह भी मानी जा रही है कि बीजेपी में मुख्यमंत्री पद के लगभग आधा दर्जन दावेदार हैं और लगभग सभी अपने क्षेत्रों के मजबूत नेता हैं. इसलिए आपसी रस्साकशी में पार्टी को नुकसान हो सकता है. यही कारण है कि बीजेपी सामूहिक नेतृत्व के साथ विधानसभा चुनाव में उतरेगी. वर्ष 2000 में अलग राज्य बनने के बाद उत्तराखंड के 20 साल से ज्यादा के राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो अब तक यहां हुए नौ मुख्यमंत्रियों में सिर्फ नारायण दत्त तिवारी ने ही पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा किया, और केवल बी.सी खंडूरी को दो बार मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला. साथ ही यह भी एक सच्चाई है कि किसी पार्टी के मुख्यमंत्री रहते हुए उस पार्टी को दोबारा सत्ता नहीं मिली है. इसलिए बीजेपी उतराखंड के राजनीतिक और सामाजिक समीकरणों को समझते हुए कोई भी रिस्क लेने के मूड में नहीं है. (यह लेखक के निजी विचार हैं)
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