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चिपको आंदोलन दिवस : दुनिया को नया जीवन देने वाले चिपको आंदोलन की वीरांगना नारियों को सलाम

चिपको आंदोलन मूलत: उत्तराखण्ड के वनों की सुरक्षा के लिए वहां के लोगों द्वारा 1970 के दशक में आरम्भ किया गया आंदोलन है। इसमें लोगों ने पेड़ों केा गले लगा लिया ताकि उन्हें कोई काट न सके। यह आलिंगन दर असल प्रकृति और मानव के बीच प्रेम का प्रतीक बना और इसे “चिपको ” की संज्ञा दी गई।

चिपको आंदोलन के पीछे एक पारिस्थितिक और आर्थिक पृष्ठभूमि है। जिस भूमि में यह आंदोलन अपजा वह 1970 में आई भयंकर बाढ़ का अनुभव कर चुका था। इस बाढ़ से 400 कि०मी० दूर तक का इलाका ध्वस्त हो गया तथा पांच बढ़े पुल, हजारों मवेशी, लाखों रूपये की लकडी व ईंधन बहकर नष्ट हो गयी। बाढ़ के पानी के साथ बही गाद इतनी अधिक थी कि उसने 350 कि०मी० लम्बी ऊपरी गंगा नहर के 10 कि०मी० तक के क्षेत्र में अवरोध पैदा कर दिया जिससे 8.5 लाख एकड़ भूमि सिंचाई से वंचित हो गर्ई थी और 48 मेगावाट बिजली का उत्पादन ठप हो गया था। अलकनदा की इस त्रासदी ने ग्रामवासियों के मन पर एक अमिट छाप छोड़ी थी और उन्हें पता था कि लोगों के जीवन में वनों की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। चिपको आंदोलन को ब्रिटिशकालीन वन अधिनियम के प्रावधानों से जोड कर भी देखा जा सकता है जिनके तहत पहाड़ी समुदाय को उनकी दैनिक आवश्यकताओं के लिए भी वनों के सामुदायिक उपयोग से वंचित कर दिया गया था।

चिपको आंदोलन का मूल केंद्ररेनी गांव (जिला चमोली) था जो भारत-तिब्बत सीमा पर जोशीमठ से लगभग 22 किलोमीटर दूर ऋषिगंगा और विष्णुगंगा के संगम पर बसा है। वन विभाग ने इस क्षेत्र के अंगू के 2451 पेड़ साइमंड कंपनी को ठेके पर दिये थे। इसकी खबर मिलते ही च<डी प्रसाद भट्ट के नेत्तट्टव में 14 फरवरी, 1974 को एक सभा की गई जिसमें लोगों को चेताया गया कि यदि पेड़ गिराये गये, तो हमारा अस्तित्व खतरे में पड जायेगा। ये पेड़ न सिर्फ हमारी चारे, जलावन और जड़ी-बूटियों की जरूरते पूरी करते है, बल्कि मिट्टी  का क्षरण भी रोकते है।

इस सभा के बाद 15 मार्च को गांव वालों ने रेनी जंगल की कटाई के विरोध में जुलूस निकाला। ऐसा ही जुलूस 24 मार्च को विधार्र्थियों ने भी निकाला। जब आंदोलन जोर पकडने लगा ठीक तभी सरकार ने घोषणा की कि चमोली में सेना के लिए जिन लोगों के खेतों को अधिग्रहण किया गया था, वे अपना मुआवजा ले जाएं। गांव के पुरूष मुआवजा लेने चमोली चले गए। दूसरी ओर सरकार ने आंदोलनकारियों को बातचीत के लिए जिला मुख्यालय, गोपेश्वर बुला लिया। इस मौके का लाभ उठाते हुए ठेकेदार और वन अधिकारी जंगल में घुस गये। अब गांव में सिर्फ महिलायें ही बची थीं। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। बिना जान की परवाह किये 27 औरतों ने श्रीमती गौरादेवी के नेतृट्टव में चिपको-आंदोलन शुरू कर दिया। इस प्रकार 26 मार्च, 1974 को स्वतंत्र भारत के प्रथम पर्यावरण आंदोलन की नींव रखी गई।

रेनी में हुए चिपको की खबर पाकर अगले दिन से आसपास के एक दर्जन से अधिक गांवों के सभी पुरुष बड़ी संख्या में वहां पहुंचने लगे। अब यह एक जन-आंदोलन बन गया। बारी-बारी से एक-एक गांव पेड़ों की चौकसी करने लगा। दूर-दराज के गांवो में चिपको का संदेश पहुँचाने के लिए विभिन्न पद्घतियों का सहारा लिया गया जिनमे प्रमुख थे पदयात्राएँ, लोकगीत तथा कहानियाँ आदि। लोकगायकों ने उत्तेजित करने वाले गीत गाये। उन्होंने वनों की कटाई और वन आधारित उद्योगों से रोजगार के अल्पजीवी अर्थव्यवस्था के नारे–

“क्या हैं जंगल के उपकार, लीसा, लकडी और व्यापार”

को चुनौति देते हुए इससे बिल्कुल भिन्न स्थाई

अर्थ-व्यवस्था के इस मंत्र का घोष किया–

“क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।

मिट्टी , पानी और बयार, जिंदा रहने के आधार।”
गोपेश्वर में वन की कटाई के सफलता-पूर्वक रूकते ही वन आंदोलन ने जोर पकड लिया। सुदूरलाल बहुगुणा के नेतृट्टव में चमोली जिले में एक पदयात्राओं का आयोजन हुआ। आंदोलन तेजी से पहले उत्तरकाशी और फिर पूरे पहाडी क्षेत्र में फैल गया।

चिपको आंदोलन में महिलाओं की भूमिका

चिपको आंदोलन को प्राय: एक महिला आंदोलन के रूप में जाना जाता है क्योंकि इसके अधिकांश कार्यकर्ताओं में महिलाएं ही थीं तथा साथ ही यह आंदोलन नारीवादी गुणों पर आधारित था। 26 मार्च, 1974 को जब ठेकेदार रेणी गांव में पेड़ काटने आये, उस समय पुरुष घरों पर नहीं थे। गौरा देवी के नेतृट्टव में महिलाओं ने कुल्हाड़ी लेकर आये ठेकेदारों को यह कह कर जंगल से भगा दिया कि यह जंगल हमारा मायका है। हम इसे कटने नहीं देंगी। मायका महिलाओं के लिए वह सुखद स्थान है जहाँ संकट के समय उन्हें आश्रय मिलता है। वास्तव में पहाड़ी महिलाओं और जंगलों का अटूट संबंध है।25 दिसम्बर, 1978 को मालगाड़ी क्षेत्र में लगभग 2500 पेड़ों की कटाई रोकने के लिए जन आंदोलन आरंभ हुआ जिसमें हजारों महिलाओं ने भाग लेकर पेड़ कटवाने के सभी प्रयासों को विफल कर दिया। इस जंगल में 9 जनवरी, 1978 को सुदूरलाल बहुगुणा ने 13 दिनों का उपवास रखा। परिणामस्वरूप सरकार ने तीन स्थानों पर वनों की कटाई तत्काल रोक दी और हिमालय के वनों को संरक्षित वन घोषित करने के प्रश्न पर उन्हें बातचीत करने का न्योता दिया। इस संबंध में निर्णय होने तक गढ़वाल और कुमायूं मण्डलों में हरे पेड़ों की नीलामी, कटाई और छपान बंद करने की घोषणा कर दी गई।

चिपको आंदोलन के दौरान महिलाओं ने वनों के प्रबंधन में अपनी भागीदारी की मांग भी की। उनका तर्क था कि वह औरत ही है जो ईंधन, चारे, पानी आदि को एकत्रित करती हैं। उसके लिए जंगल का प्रश्न उसकी जीवन- मृत्यु का प्रश्न है। अत: वनों से संबंधित किसी भी निणर्य में उनकी राय को शामिल करनी चाहिए। चिपको आंदोलन ने वंदना शिवा को विकास के एक नये सिधांत – ‘पर्यावरण नारीवाद’ के लिए प्रेरणा दी, जिसमें पर्यावरण तथा नारी के बीच अटूट संबंधों को दर्शाया गया है।

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